ट्यूनीशियाई कवि अब्दुल कासिम अल-शाबी की दो कविताएँ

दुनियाभर के तानाशाहों के नाम

जालिम तानाशाह, अँधेरे के आशिक, जिन्दगी के दुश्मन
तुमने कमजोर लोगों के डील-डौल का मजाक उड़ाया
उनके खून से लतपथ है तुम्हारी हथेली
तुमने वजूद के जादू का रूप बिगाड़ दिया
और खेतों में बो दिए गम के बीज

ठहरो— खुद को मत बहलाओ बहार के मौसम
आसमान के साफ होने या सुबह की रोशनी से
क्योंकि क्षितिज पर छाया है अँधेरे का खौफ,
बादल की गड़गड़ाहट, हवा के झोंके

ख़बरदार, कि राख के नीचे आग ही आग है
और जो काँटा बोता है वही जख्मी होता है
उधर देखो, कि हमने इन्सानी दिमागों की
और उम्मीद के फूलों की फसल उगायी है
और हमने धरती के दिल को खून से सींचा है
और इसे आंसुओं से तरबतर किया है
खून का दरिया तुमको बहा ले जायेगा
और आग का तूफ़ान तुमको निगल लेगा।

दूसरी कविता

अगर अवाम जिन्दगी को चुन ले (आजादी समेत)
मुकद्दर साथ देगा और करामात करेगा
अंधेरा यकीनन दूर हो जाएगा
और जंजीरें लाजिमी तौर पर टूट जाएँगी।

{ट्यूनीशियाई कवि अब्दुल कासिम अल-शाबी (1909-1934)}

(अरबी से अंग्रेजी अनुवाद– अब्दुल इस्कन्दर, अंग्रेजी से हिन्दी अनुवाद– दिगम्बर)

क्रान्ति (एक कवि का इतिवृत) –व्लादिमीर मायकोवस्की

26 फरवरी, पियक्कड़ सैनिकों ने पुलिस के साथ मिलकर, जनता पर गोली दागी.

 

27 तारीख को

लाल, दीर्घकालिक,

सूर्योदय की दग्ध किरणें फूटीं,

बन्दूक के चमकते नाल और संगीन पर छिटकीं.

दुर्गन्ध भरे बैरकों में,

शान्त,

निर्दयी,

वोलिन्सकी रेजिमेंट ने प्रार्थना की.

अपने क्रूर सैनिक भगवान को

अर्पित किया अपना सौगंध,

भृकुटी तने माथे को फर्श पर पटका,

उबलते आक्रोश में हाथों को जकड़कर इस्पात बनाते हुए,

तीव्र गुस्से से खून उतर आया उनकी कनपटियों पर.

 

पहला,

जिसने आदेश दिया-

“भुखमरी के नाम पर गोली दागो!”

उसके भौंकते मुँह को बन्द कर दिया एक गोली ने.

चुप कर दिया किसी के “सावधान!” को

चाकू के प्रहार ने,

भाड़ में जाएँ वे.

सैनिक टुकड़ियाँ शहर में फ़ैल गयीं आँधी की तरह.

 

9 बजे

 

वाहन स्कूल के

अपने स्थाई ठिकाने के पास

हम डटे रहे,

बैरेक की बाड़ में घिरे हुए.

ज्यों-ज्यों ऊपर चढ़ता है सूरज

आत्मा को सालता है संदेह,

भयावह, लेकिन सुहावने पूर्वानुमान से भरा.

खिड़की पर!

मैंने देखा-

दिख रहे थे जहाँ से आसमान को बेधते

महल के कंगूरों के तीखे दाँत

बाज की ऊँची उड़ान,

ज्यादा मनहूस,

ज्यादा खूँख्वार,

सचमुच बाज जैसे.

 

और देखते-देखते

जनता,

घोड़े,

सड़क की बत्तियाँ,

इमारतें,

और सैकड़ों की तादात में

मेरे बैरक,

उमड़ आये सड़कों पर

झुण्ड के झुण्ड,

उनके तीखे पदचाप गूँजने लगे सड़कों पर,

कानों को चीरती, दानवी कर्कश आवाजें.

 

और फिर,

भीड़ के गाने से-

या क्या पता?-

पहरेदारों के कर्णभेदी बिगुल से

उभरी,

एक प्रतिमा,

उज्जवल,

गर्द-गुबार को चीरती झलकी उसकी दीप्ती.

 

उसके फैलते पंखों के आगोश में आते गए जनगण

उनकी चाह थी रोटी से अधिक की,

प्यास थी पानी से अधिक की,

आवाज आई–

“नागरिको, हथियार उठाओ- हर एक औरत और मर्द!

हथियार उठाओ, नागरिको, हिचक छोड़ दो!”

झंडों के पंखों पर सवार

सौ-सिरों का बल लिए

वह शहर के उदर से होते हुए

आकाश छूती ऊँचाइयों तक उड़ा,

भय से काँप उठा दोमुहें शाही बाज का शरीर

काँप उठी जान लेने पर आमादा उसकी संगीनें.

 

नागरिको!

आज के दिन पलट रहा है तुम्हारा हजारों साल पुराना अतीत.

आज के दिन बदल रही है दुनिया की बुनियाद.

आज,

आज पूरी दृढ़ता के साथ

हर एक की जिन्दगी में बदलाव शुरू करना है.

 

नागरिको!

यह पहला दिन है

मजदूरों को आनन्द विभोर करने वाला.

हम आये हैं

इस गड़बड़ दुनिया की सहायता के लिए.

जनसमूह को अपने पदचाप ओर चीख से आसमान हिलाने दो!

सायरन की चीख से फूटने दो नाविकों का आक्रोश!

 

होशियार, दोमुहें लोगो!

हिलोर, गीतों का शोर

उन्मत करती है जनसमूह को

राह में होते हिमस्खलन की तरह.

चौराहे जोश से उबल रहे हैं.

छोटी-सी फोर्ड मोटर में इधर-उधर डोलते

गोली के निशाने को पीछे छोड़ते हुए

धमाकेदार शोर मचाते हुए

गुजरते हैं हम शहर को चीरते हुए.

 

कोहरा!

सड़क पर प्रवाहमान

जन-सैलाब से उठता धुंआ

जैसे एक दर्जन विराट नावें खेते नाविक

तूफानी दिनों के ऊपर

विद्रोही लोगों की मोर्चाबंदी के ऊपर से

गा रहे हों बुलंद आवाज में क्रान्ति-गीत मर्सियेज.

 

पहले दिन का प्रचंड तोप का गोला

सनसनाता हुआ दूमा के गुम्बंद के पिछवाड़े लुढका.

एक नये भोर की नयी थरथराहट

जकडती है हमारी आत्मा को,

बेसुध और उदास करते हैं हमें, नये संदेहों के हमले.

 

आगे क्या होगा?

क्या हम इन संदेहों को

फेंक देंगे खिडकियों से बाहर,

या पसरे रहेंगे अकर्मण्य अपने काठ के तखत पर

इस इन्तजार में कि राजाशाही

पूरे रूस को वीभत्स

भयानक टीलेनुमा

कब्रगाहों में बदल दे.

 

कानों को छेदते बन्दूक के धमाकों से

अपने कलेजे को सुन्न कर लिया मैंने.

ओर इसके बाद,

बरसातियों के बीचों-बीच बन गया खंदक.

इमारतों के ऊपर

गोलियाँ बरसाना शुरू किया मशीन-गनों ने

शहर जल रहा है

गोलों के बज्रपात से छिन्न-भिन्न.

हर जगह जीभ लपलपाती लपटें

ऊपर उठती फिर इधर-उधार फैलती.

फिर-फिर ऊँची उठती, दूर तलक छिटकाती चिंगारियाँ.

ये सड़कें हैं

सब पर लाल झंडे टंगे-

लाल लपटें अपील करती रूसियों से, रूस से.

 

एक बार फिर

अरे, एक बार फिर

अपने विवेक की झलक दिखाओ,

ऐ रक्ताभ जिह्वा और लाल होंठों वाले वक्ता

निचोड़ो, सूरज ओर चाँद की चमकीली किरणों को

हजारों हाथों वाले मारात दानव को

अपने प्रतिशोधी जकड में ले लो!

मरते, दोमुहें लोग!

टूटते जेलों के दरवाजे पर पड़ी जंग

खुरचते हुए अपने नाखूनों से!

बाज के पंखों के पुलिंदे की तरह

गोली खाकर टपकते धूल में

हथियार बन्द सिपाही.

 

आत्म समर्पण करता है, राजधानी का जलता खण्डहर.

अटारियों के इर्द-गिर्द चारों ओर चल रही है तलाशी.

वह क्षण निकट आ गया है.

त्रोइत्सकी पुल पर सैनिकों का समूह

परेड करता, धीरे-धीरे आगे बढता है.

 

चरमराहटें गूँजती हैं काँपती बुनियादों और शहतीरों की

हमारे प्रहार से दुश्मन गिरफ्त में आता जा रहा है.

क्षण भर में

पेट्रोपाव्लोव्स्काया दुर्ग से

लपटों की तरह, क्रान्तिकारी पताका ऊँचाई में लहराता है

सूर्यास्त की लालिमा से आलोकित

विनाश हो, दो मुंहों का!

सर उड़ा दो!

गला रेत दो!

फिर कभी रौंद न पाये हमसब को

उनके जूतों की नाल!

वहाँ देखो,

वह धरासाई हो रहा है!

उस कोने में अंतिम आदमी पर झपट्टा मारते हुए.

भगवान!

चार हजार ओर आत्माओं को अपने घेरे में ले लो!

 

हद है!

असीम आनन्द में उठती है सभी आवाजें!

हमारे लिए भगवान क्या है

सौभाग्यशाली अपने स्वर्ग सहित?

खुद हम लोग और

हमारे मृतक भी,

संतों के साथ शांति से सो जाएँगे कब्र में.

 

कोई भी गा नहीं रहा है क्यों?

या, रक्तरंजित,

साइबेरियाई कफ़न ने हमारी आत्माओं को जकड लिया?

हमने विजय पायी है!

गौरव,

हम सबके लिए गौरव, हर एक के लिए!

हथियारों पर हाथ की जकड कायम है अब भी,

हम एक नया कानून लागू करते हैं

जिस पर चलेंगे लोग.

अंततः इस धरती पर लाते हैं हम नये धर्मादेश-

अपने ही धूसर सिनाई पर्वत से.

 

हमारे लिए, इस पृथ्वी ग्रह के निवासियों के लिए,

पृथ्वी का हर निवासी सबसे करीबी रक्त-सम्बन्धी है,

चाहे हो खान मजदूर,

क्लर्क या किसान.

पृथ्वी पर हम सभी यहाँ सैनिक हैं-

एक ही जीवन-सर्जक सेना के!

ग्रहों की उड़ान,

राज्यों का जीवन

हमारी इच्छा के अधीन हैं.

हमारी है यह पृथ्वी,

हवा हमारी है,

तारे जो हीरों की तरह भरे हैं आकाश में.

और हम कसम खाते हैं

अपनी आत्मा की-

हम कभी भी

कभी भी!

अपने ग्रह को उड़ाने नहीं देंगे

किसी को तोप के गोलों से

या चीरने नहीं देंगे अपनी हवा को

पैनी सान वाले भाले से.

 

किसका मनहूस गुस्सा

दो फाड़ करता है इस ग्रह को?

कौन उड़ाता है काला धुआँ

इन चमकते रणक्षेत्रों में?

क्या एक ही सूर्य

काफी नहीं है

तुम सबके लिए?

क्या एक आकाश

काफी नहीं तुम सब के लिए-

जिन्होंने जन्म लिया और बड़े हो रहे हैं?

 

अन्तिम बंदूकें गरज रही हैं खुनी विवादों के बीच.

शस्त्रागारों में,

जहाँ बना अंतिम संगीन!

हम सभी सैनिकों से नष्ट करवाएंगे

उनके बारूद,

हम बच्चों में बाँट देंगे हथगोले

गेंद बना कर.

 

डर की चीत्कार नहीं आती अब

धूसर बरसातियों से,

भीषण अकाल में जन्मे लोगों का

रुदन अब नहीं आता

आज असंख्य लोग गरज रहे हैं

“हमें भरोसा है

मनुष्य के हृदय की महानता पर!”

 

जहाँ उड़ रही है सघन धुल

रणक्षेत्र के ऊपर,

उन तमाम लोगों के ऊपर

उत्पीडन के मारे जिन्होंने खो दिए थे

 

प्यार पर भरोसा,

 

उदीयमान है आज,

अकल्पनीय रूप से वास्तविक

सर्वकालिक समाजवादी वैभवशाली मतान्तर!

(अनुवाद — दिगम्बर)

 

 

इनके बारे में सोचिए लेकिन आप ऐसा नहीं करेंगे — मार्ज पीयर्सी

 

 

घूँघराले भूरे बालों वाली
उस बच्ची के बारे में सोचिए
जो पुरानी कार की पिछली सीट पर
अपने कुत्ते के साथ सो रही है
और उसके माँ-बाप
कार चलाते आगे की अस्त-व्यस्त सीट पर
जम्हाई ले रहे हैं।

भूरी त्वचा वाले उस बच्चे के बारे में सोचिए
जिसे अश्वेत कहा जाता है
जिससे कहा गया है
कि वह वापस अफ्रीका चला जाये
जिसके महान पूर्वजों ने
स्कूल तक जाने वाली
अमरीकी सड़कों को बनाया था।

बलात्कार से गर्भवती हुई
उस औरत के बारे में सोचिए
जो मजदूरी छोडकर
दो राज्यों को पार कर
गर्भपात के लिए नहीं जा सकी
जो अपने बच्चे को
प्यार करने की जबरन कोशिश करती है
लेकिन वह बच्चा अब अधिकांश
उस घिनौने बलात्कारी जैसा
दिखाई देता है।

उन औरतों और मर्दों के बारे में सोचिए
जो असेंबली लाइन में
तब तक काम करते हैं
जब तक
उनके कान बहरे न हो जाएँ
पीठ झुक न जाये
और किडनी फेल न हो जाये
वे पेन्सन की बकाया राशि चाहते हैं
जो उनकी ज़िंदगी में रोशनी ला दे
लेकिन कंपनी के पास
अपना वादा निभाने का समय नहीं है।

उस परिवार के बारे में सोचिए
जिसका घर बैंक वाले जब्त कर लेंगे
कैंसर की दवा खरीदने की स्थिति में
नहीं रह गया है अब वह परिवार
हर महीने की कैंसर की दवा
पूरे परिवार की मासिक आमदनी के बराबर है
इसलिए उसकी बेटी मर जाएगी
और फिर भी वह परिवार कर्ज में डूबा रहेगा।

लेकिन मेरे सरकार
आप उन्हें देखेंगे भी नहीं
वे इतने तुच्छ जीव हैं।

(मंथली रिव्यू जून 2017 से साभार)
अनुवाद-विक्रम प्रताप

कोएनर महाशय की कहानी –अगर शार्क आदमी होते — बर्तोल्त ब्रेख्त

bartolt brekht

मकान मालकीन की छोटी लड़की ने क महाशय से पुछा– “अगर शार्क आदमी होते तो क्या छोटी मछलियों के साथ उनका व्यवहार सभ्य-शालीन होता?” उन्होंने कहा- “निश्चय ही, अगर शार्क आदमी होते तो वे छोटी मछलियों के लिए समुद्र में विशाल बक्से बनवाते, जिसके भीतर हर तरह के भोजन होते, तरकारी और मांस दोनों ही। वे इस बात का ध्यान रखते कि बक्सों में साफ पानी रहे और आम तौर पर वे हर तरह की स्वच्छता का इंतजाम करते। उदाहरण के लिए अगर किसी छोटी मछली का पंख चोटिल हो जाता तो तुरन्त उसकी पट्टी की जाती, ताकि वह मर न जाये और समय से पहले वह शार्क के लिए गायब न हो जाये। छोटी मछलियाँ उदास न हों इसलिए समय-समय पर विराट जल महोत्सव होता, क्योंकि प्रसन्नचित्त मछलियाँ उदास मछलियों से ज्यादा स्वादिष्ट होती हैं। निश्चय ही, बड़े बक्सों में स्कूल भी होते। उन स्कूलों में छोटी मछलियाँ यह सिखतीं कि शार्क के जबड़ों में कैसे तैरा जाता है। भूगोल जानना भी जरूरी होता, ताकि उदहारण के लिए, वे उन बड़े शार्कों को खोज सकें जो किसी जगह सुस्त पड़े हों। छोटी मछलियों के लिए प्रमुख विषय निश्चय ही नैतिक शिक्षा होता। उनको सिखाया जाता की दुनिया में यह सबसे अच्छी और बेहद सुन्दर बात होगी अगर कोई छोटी मछली ख़ुशी-ख़ुशी अपने को कुर्बान करे और यह कि उन सबको शार्कों पर भरोसा रखना होगा, खासकर तब जब वे कहें कि वे उनके लिए सुन्दर भविष्य मुहैया कर रहे हैं। छोटी मछलियों को पढ़ाया जाता कि यह भविष्य तभी सुनिश्चित होगा जब वे आज्ञाकारी बनना सीख जायें। छोटी मछलियों को सभी घटिया, भौतिकवादी, स्वार्थपरक और मार्क्सवादी रुझानों सावधान रहना होता और अगर उनमें से कोई दगाबाजी करके इन बातों में दिलचस्पी लेती तो तुरन्त इसकी सूचना शार्कों को देनी होती। अगर शार्क आदमी होते तो निश्चय ही वे एक दूसरे के खिलाफ युद्ध छेड़ते, ताकि दूसरे मछली बक्सों और दूसरी छोटी मछलियों को जीत सकें। युद्ध उनकी अपनी छोटी मछलियों द्वारा लड़ा जाता। वे अपनी छोटी मछलियों को सिखाते कि उनमें और दूसरे शार्कों की छोटी मछलियों के बीच भरी अन्तर है। वे घोषणा करते कि छोटी मछली चुप रहने के लिए सुविख्यात हैं, लेकिन वे बिलकुल अलग भाषाओं में चुप हैं और इसलिए एक दूसरे को समझ पाना उनके लिए असंभव होता है। हर छोटी मछली जो युद्ध में एक जोड़ी छोटी मछली, यानी अपने दुश्मन की हत्या करती उसे समुद्री शैवाल टाँका हुआ तमगा मिलता और उसको नायक की उपाधि से विभूषित किया जाता। अगर शार्क आदमी होते तो निश्चय ही कला भी होती। सुन्दर-सुन्दर तस्वीरें होतीं जिनमें शार्क की दाँतों को शानदार रंगों में चित्रित किया गया होता और उनके जबड़ों को निर्मल विहार उपवन के रूप में दर्शाया जाता जिसमें कोई भी शान से विचरण कर पाता। समुद्र की तलहटी में थियेटर यह दिखाता कि कैसे बहादुर छोटी मछलियाँ उत्साहपूर्वक शार्क के जबड़े में तैर रही हैं और संगीत इतना सुन्दर होता कि वह उनके सुर में सुर मिलाता रहता, आर्केस्ट्रा उनको प्रोत्साहित करता और अत्यंत मनोहर विचारों से श्लथ, छोटी मछलियाँ स्वप्निल बहाव के साथ शार्क के जबड़े में समातीं। एक धर्म भी होता अगर शार्क आदमी होते। वह उपदेश देता कि छोटी मछली वास्तव में केवल शार्कों के उदर में ही समुचित रूप से जीना शुरू करती हैं। इसके आलावा, अगर शार्क आदमी होते तो सभी छोटी मछलियों की बराबरी का दर्जा ख़त्म हो जाता, जैसा कि आजकल है। कुछ को महत्वपूर्ण पद दिये जाते और उनको बाकी सब से ऊँचा स्थान दिया जाता। जो थोड़ी बड़ी होतीं उन्हें अपने से छोटी मछलियों को खाने की भी इजाजत होती। शार्कों की इस बात पर पूरी सहमति होती क्योंकि उनको भी तो समय-समय पर थोडा बड़ा निवाला खाने को मिलता। और हाँ, जो छोटी मछलियाँ थोड़े बड़े आकर की होतीं वे अपने पदों पर काबिज होकर बाकी छोटी मछलियों के बीच व्यवस्था कायम करतीं। वे शिक्षक, अफसर, बक्सा निर्माण इंजीनियर इत्यादि हो जातीं। थोड़े शब्दों में, अगर शार्क आदमी होते तो पहली बार वे समुद्र के भीतर संस्कृति ले आते।

(अनुवाद — दिगम्बर)

कामरेड लेनिन से बातचीत (1829) –ब्लादिमीर मायकोवस्की

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घटनाओं की एक चकरघिन्नी

ढेर सारे कामों से लदा,

दिन डूबता है धीरे-धीरे

जब उतरती है रात की परछाईं.

दो जने हैं कमरे में—

मैं

और लेनिन-

एक तस्वीर

सफेद दीवार पर लटकी.

दाढ़ी के बाल फिसलते हैं

उनके होठों के ऊपर

जब उनका मुँह

झटके से खुलता है बोलने को.

तनी हुई

भौं की सलवटें

विचारों को रखती हैं

उनकी पकड़ में,

घनी भौंहें

मेल खाती घने विचारों से.

झंडों का एक जंगल

उठी हुई मुट्ठियाँ घास की तरह सघन…

हजारों लोग बढ़ रहे हैं जुलूस में

उनके नीचे…

गाड़ियों से लाये गए,

ख़ुशी से उछलते हुए उतरते,

मैं अपनी जगह से उठता हूँ,

उनको देखने के लिए आतुर,

उनके अभिवादन के लिए,

उनके आगे हाजिर होने के लिए!

“कामरेड लेनिन,

मैं आपके सामने हाजिर हूँ-

(किसी के आदेश से नहीं,

सिर्फ अपने दिल की आवाज पर)

.यह मुश्किल काम

पूरा किया जायेगा,

बल्कि पूरा किया जा रहा है.

हम लोगों को मुहय्या करा रहे है

खाना और कपड़ा

और जरूरतमन्दों को रोशनी,

कोटा

कोयले का

और लोहे का

पूरा हुआ,

लेकिन अभी भी

परेशानियाँ कम नहीं,

कूड़ा-करकट

और बकवास

आज भी हमारे चारों ओर.

तुम्हारे बिना,

ढेर सारे लोग

बेकाबू हो गए,

सभी तरह के झगड़े

और वाद-विवाद

जो मुमकिन हैं.

हर तरह के बदमाश

भारी तादाद में

परेशान कर रहे हैं हमारे देश को,

सरहद के बाहर

और भीतर भी.

कोशिश करो

इन्हें गिनने की

और दर्ज करने की,

इनकी कोई सीमा नहीं.

सभी तरह के बदमाश,

और बिच्छू की तरह विषैले—

कुलक,

लालफीताशाह

और

निचली कतारों में,

पियक्कड़,

कट्टरपंथी,

चाटुकार.

वे अकड़ते हुए चलते हैं,

घमण्ड में चूर

मोर की तरह,

उनकी छाती पर जड़े

बैज और फौन्टेन पेन.

हम उनमें से बहुतों से छुटकारा पा लेंगे

मगर यह काम आसान नहीं

बेहद कठिन प्रयास की जरूरत है.

बर्फ से ढकी जमीन पर

और बंजर खेतों में,

धुआँभरे कारखानों में

और बन रहे कारखानों के पास,

आपको दिल में बसाए,

कामरेड लेनिन,

हम रच रहे हैं,

हम सोच रहे हैं,

हम साँस ले रहे हैं,

हम जी रहे हैं,

और हम संघर्ष कर रहे हैं!

घटनाओं की एक चकरघिन्नी

ढेर सारे कामों से लदा,

दिन डूबता है धीरे-धीरे

जब उतरती है रात की परछाईं.

दो जने हैं कमरे में—

मैं

और लेनिन-

एक तस्वीर

सफेद दीवार पर लटकी.

(अनुवाद– दिगम्बर)

रिसेप्सनिस्ट अपनी डेस्क के पास बैठी है और गुनगुनाती है सॉलिडेरिटी गीत –कारोल तार्लेन

(कारोल तार्लेन एक मजदूरनी, ट्रेड यूनियन कार्यकर्त्री और कवियत्री थीं… 2012 उनकी मृत्यु हुई… पहले भी उनकी कविता विकल्प पर प्रकाशित हुई और सराही गयी…)

हम एक नयी दुनिcarol_01gया को जन्म देंगे

पुरानी दुनिया की राख से

 

मैं एक सोन मछरी हूँ जिसे पकड़ा तुमने

ठण्डी बारिश के दौरान

सेवारवाले एक बड़े तालाब से.

मेरे माँस ने देखे धरती के चारों कोने.

मैं रसीली हूँ.

मेरे शल्क चमकते हैं

तुम्हारी पनीली भूरी आँखों में.

मैं मुस्तैदी से सजाई हुई नुमाइशी चीज हूँ

जो तुम्हारे फोन सुनती है,

टाइप करती है तुम्हारे टैक्स बचत की रिपोर्ट

शर्दियों की यात्रा.

स्वागत करती है तुम्हारे ग्राहकों का

गुलाबी मुस्कान से.

जब मैं बैठती हूँ गद्देदार

चक्करदार बिन हत्थेवाली कुर्सी पर,

सपने देखती हूँ खूबसूरत विदेशी जगहों के,

टहलती हुई विशाल सजे-धजे पार्कों में.

इसी बीच मैं देखती हूँ अपनेआप को

झुकी कमर बूढ़ी, लिपटा स्कार्फ

मेरी पतली गर्दन पर,

सुलगती राख को कुरेदते हुए,

लेकिन फिर मैं देखती हूँ

कि मैं चौड़े कुल्हेवाली, लम्बी, मजबूत औरत

दोनों पैर फैलाये,

सन्तान जन रही हूँ.

(अनुवाद — दिगम्बर)

मैं क्यों लिखता हूँ

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खुद को कुछ सनकी और तकलीफदेह अहसासों से बचाने के लिए.

जो ख़यालात और इलहाम मेरे दिमाग में उमड़ते-घुमड़ते हैं उनको तरतीब देने की कोशिश में ताकि उनको बेहतर ढंग से समझा जाय.

कोई ऐसी बात कहने के लिए जो कहने लायक हो.

लफ़्ज़ों के सिवा किसी भी दूसरी चीज का सहारा लिये बगैर कोई ऐसी चीज बनाने के लिए जो खूबसूरत और टिकाऊ हो.

क्योंकि इसमें मजा आता है.

क्योंकि सिर्फ यही काम है जिसे मैं कमोबेश बेहतर तरीके से करना जानता हूँ.

क्योंकि ये मुझे किसी नाकाबिले-बयान गुनाह से आजाद कर देता है.

क्योंकि इस काम का मैं आदी हो गया हूँ और क्योंकि मेरे लिए ये किसी बुराई से, किसी रोजमर्रे के काम से कहीं बेहतर है.

ताकि मेरी जिन्दगी का तजुर्बा, चाहे वह कितना ही छोटा क्यों न हो, कहीं खो न जाए.

क्योंकि अपने टाईपराइटर और सादा कागज़ के आगे  मेरे अकेले होने की हकीक़त मुझे पूरी तरह आजाद और ताकतवर होने का भरम देती है.

एक किताब की शक्ल में, एक आवाज़ की तरह जिसे कोई सुनने की जहमत मोल ले सके, मरने के बाद भी जिन्दगी को कायम रखने के लिए.

(रचनाकार– जूलियो रैमन रिबेरो, लातिन अमरीकी लेखक, 1929-94. अनुवाद– दिगम्बर)

हे मार्केट के अराजकतावादियों की सौवीं बरसी की याद में

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4 मई 1970, ओहियो के राष्ट्रीय सुरक्षा सैनिकों ने प्रदर्शनकारी छात्रों के एक समूह पर गोली चलायी, जिसमें चार छात्र मारे गये और नौ घायल हुए। पूरे देश ने गगन भेदी गर्जना के साथ इस घटना का विरोध किया– राज्य–समर्थित इस हत्याकाण्ड की निंदा बहुत थोड़े लोगों ने ही की, जबकि भारी बहुमत ने इस कृत्य के लिए ‘‘कानून और व्यवस्था’’ लागू करने पर खुशी जाहिर की ।

वितयनाम में होने वाले युद्ध का विरोध, जिसमें छात्रों ने बड़ी भूमिका निभायी उसने देश को दो भाग में बाँट दिया और राज्य मशीनरी ने लम्बे समय से जारी इस परम्परागत तौर–तरीके का सहारा लिया कि जनता की आवाज को खामोश करने के लिए कुछ लोगों की हत्या करनी पड़ती है और हमेशा की तरह इस नीति ने अपना काम किया। केन्ट प्रान्त में छात्र आन्दोलन अपने चरम पर था ।

विडम्बना है कि जिस समय राष्ट्रीय सुरक्षा सैनिकों ने केन्ट प्रान्त में छात्रों को गोलियों से भून दिया था, उसी समय मेयर रिचर्ड डैली हे मार्केट चैराहे के उस पुलिस स्मारक को पुनः समर्पित कर रहे थे जिसे सोशलिस्ट डेमोक्रेटिक सोसाइटी (एसडीएस) के उग्र धड़े के सदस्य वेदरमैन ने 6 अक्टूबर 1969 को बम से उड़ा दिया था। शिकागो द्वारा 4 मई, 1886 के दंगों में उसकी ओर से लड़ने वालों को समर्पित हे मार्केट चैराहे के स्मारक के जरिये कानून लागू करने वाले उन अधिकारियों को सम्मानित किया गया, जिन्होंने 19वीं शताब्दी के अंत में विराट मजदूर आन्दोलन का गला घोंटने के लिए दमन का सहारा लिया था ।

1850 के पूरे दशक के दौरान भारी संख्या में मजदूर 8 घण्टे के कार्यदिवस की माँग के इर्द–गिर्द संगठित हुए। पूरे देश में काम के घण्टे 8 करने की माँग करने वाले सैकड़ों संगठन उठ खड़े हुए। उनके दवाब में 1867 के मार्च में इलिनॉयस जनरल एसेम्बली ने 8 घण्टे कार्य दिवस को इलिनॉयस में कानूनी घोषित कर दिया। परन्तु मजदूरों पर फिर भी 10, 12 और 14 घण्टों तक काम करने के लिए दवाब डाला जाता था। जिन लोगों ने 8 घण्टों से अधिक काम करने से मना किया, उन्हें नौकरी से निकाल कर उनकी जगह बेरोजगारों की स्थायी फौज से नये मजदूर रख लिये गये ।

संगठित व्यापार और श्रम संघ ने (जो बाद में अमरीकी श्रम संघ बन गया) एक मई, 1886 को पहला मई दिवस घोषित किया, जिसे 8 घण्टे का कार्य दिवस लागू करने की अन्तिम समय सीमा माना गया। टेरेन्स पाउडरली व नेशनल नाइट्स ऑफ लेबर जैसे संगठनों द्वारा विरोध किये जाने के बावजूद उस दिन देशव्यापी हड़ताल हुई जिसमें 12 हजार फैक्ट्रियों के 3 लाख, 40 हजार मजदूरों ने हिस्सा लिया। शिकागो नाइट्स ने अल्बर्ट पार्सन्स के प्रभाव में प्रस्ताव का उत्साहपूर्वक समर्थन किया ।

एक मई को अल्बर्ट पार्सन्स ने अपनी पत्नी व दो बच्चों के साथ शिकागो की गलियों में 80 हजार लोगों के आन्दोलनकारी जूलूस की अगुवाई की । 16 फरवरी से मैकोर्मिक प्लांट में तालाबन्दी के कारण निकाले गये 1500 मजदूरों में से ज्यादातर मजदूरों ने आन्दोलन में हिस्सा लिया। पुलिस और पिंकार्टन्स ने अपने हाथों में रायफल लेकर मकान की छतों से इस पूरे आन्दोलन पर नजर रखी। लेकिन पार्सन्स, ऑगस्ट स्पाइस और अन्य वक्ताओं के जोशीले भाषण सुनने के बाद उत्साहित भीड़ बिना कोई घटना घटे वहाँ से बिखर गयी। दो दिनों के अंदर ही लगभग 65 हजार से 80 हजार मजदूरों ने हड़ताल कर दी ।

3 मई, आर्बिटर जितुंग के सम्पादक ऑगस्ट स्पाइस ने मैकोर्मिक से आने वाली सड़क पर 6 हजार हड़ताली लकड़हारों की भीड़ को सम्बोधित किया। जैसे ही शिफ्ट बदलने की घंटी बजी, श्रोताओं में से कुछ लोग निकलकर हड़ताल तोड़ने वालों से जवाब–तलब करने के लिए मैकोर्मिक के गेट की ओर चल दिये। ठीक उसी समय इंस्पेक्टर जॉन बॉनफिल्ड वहाँ आ गये और अव्यवस्था फैल गयी । वहाँ क्या हो रहा है यह देखने के लिए स्पाइस वहाँ पहुँचे, लेकिन उन्होंने अपने आपको पुलिस की लाठियों और गोलियों की बौछार से घिरा पाया। कितने लोग मरे और घायल हुए, यह आज तक सही–सही पता नहीं चल पाया। अधिकांश लोग इतने घबराये हुए थे कि अपना इलाज भी नहीं कराना चाहते थे ।

अपमान का घूँट पीये स्पीज भागे–भागे अपने दफ्तर पहुँचे, जहाँ उन्होंने ‘‘मेहनतकशो, हथियार उठाओ’’ नाम से उत्तेजनापूर्ण सर्कुलर लिखा । एक कम्पोजीटर ने यह सोचकर कि और अच्छा शीर्षक बनेगा, उसमें ‘‘बदला लो’’ शब्द जोड़ दिया ‘‘बदले का सर्कुलर कहे जाने वाले इस ज्ञापन की लगभग 1500 प्रतियाँ बाँट दी गयीं । 4 मई को आर्बिटर जिटुंग में स्पाइस का, मैकोर्मिक में हुई घटना पर लेख पढ़कर शिकागो के मजदूर और अधिक क्रोधित हो गये । उसी अखबार में माइकल एसक्वाब का लेख ‘‘वर्गों का युद्ध अब निकट है’’, भी छपा ।

उसी समय नेताओं का एक समूह जिसमें एडोल्फ फिशर और जॉर्ज एंजिल शामिल थे, उन्हें शाम को हे मार्केट में होने वाली रैली के लिए बुलाया गया । फिशर पर वक्ताओं को बुलाने और पर्चे की छपाई की जिम्मेदारी थी। उनके द्वारा छापा गया मूल पर्चा इस पंक्ति पर खत्म होता था ‘‘मेहनकशों हथियार उठाओ और पूरी ताकत के साथ सामने आओ’’ परन्तु ऑगस्ट स्पाइस ने भाषण देने से मना कर दिया, जब तक कि यह लाइन हटा नहीं दी जाती । मूल पर्चे को बदल दिया गया, लेकिन पहले वाले पर्चे की कुछ प्रतियाँ भी बाँटी गयी ।

उस रात लगभग 2500 लोग इकट्ठे हुए । एडोल्फ फिशर थक कर कुछ मिनटों के लिए सो गये, फिर धीमे–धीमे चलकर जैक के हॉल में शराब पीने गये । जार्ज अपनी पत्नी और कुछ दोस्तों के साथ ताश खेलने के लिए अपने घर पर ही रुक गये । जब कोई वक्ता उपस्थित नहीं हुआ तो भीड़ अशान्त हो गयी ।

स्पाइस साढ़े आठ बजे पहुँचे । उनका जर्मन में भाषण देना तय था । स्पाइस जल्दी में नहीं थे क्योंकि तब विदेशी भाषाओं में भाषण अन्त में होते थे लेकिन भीड़ को असमजंस में पाकर वे तुरंत एक पुरानी गाड़ी पर चढ़ गये और बोलना शुरू कर दिया । स्पाइस की सहायता के लिए कुछ साथी दूसरे वक्ताओं को भीड़ में खोजने लगे ।

अल्बर्ट पार्सन्स अभी–अभी सिनसिनाटी से वापस आये थे । वे लगभग 15 मिनट बाद दिखाई दिये और स्पाइस के बाद उन्होंने बोलना शुरू किया । लगभग 10 बजे पार्सन्स ने मंच सैम्युअल फिल्डेन को सौंप दिया और अपनी पत्नी लूसी के साथ एक शराबखाने में फिशर का साथ देने चले गये ।

फिल्डेन ने 4 मई की दोपहर के बाद का समय वेलदिन कब्रिस्तान में सड़क बनाने के लिए बजरी ढोने के काम में दिया था और उन्हें इस रैली के आयोजन की जानकारी नहीं थी, हे मार्केट पहुँचने के कुछ समय बाद ही उन्हें इसका पता चला । वे बोलने के लिए पहले से तैयार नहीं थे । उन्होंने भीड़ को बाँधे रखने की पूरी कोशिश की। जिस समय इंस्पेक्टर बॉर्न फिल्ड और उसके 180 सिपाही वहाँ पहुँचे, वे भाषण समाप्त करने की तैयारी कर रहे थे ।

बॉर्न फिल्ड ने सभी से ‘‘तुरन्त और शान्तिपूर्वक’’ बिखर जाने की माँग की । ‘‘लेकिन कैप्टन, हम यहाँ शान्तिपूर्वक हैं’’ फिल्डेन ने यह जवाब दिया ही था कि एक विस्फोट ने भीड़ को हिला दिया । पुलिस कतारों के बीच एक बम फेंका गया था । इसके बाद पुलिस ने अंधा–धुंध गोली चलानी शुरू कर दी । जिस समय यह सब खत्म हुआ, चार आम नागरिक और 7 पुलिस वाले मारे गये । सैमुएल फिल्डेन, ऑगस्ट स्पाइस के भाई और आम नागरिक व पुलिस को मिलाकर 100 से 200 लोग घायल हुए । फिर भी, केवल एक सिपाही माथियास देगान ही बम से मरा, बाकी पुलिस की गोलीबारी में घायल हुए ।

एक अज्ञात पुलिस वाले ने 27 जून को शिकागो ट्रिब्यून को बताया ‘‘मैं भी जानता हूँ कि यह एक सच है, बहुत बड़ी संख्या में सिपाही एक-दूसरे की रिवाल्वर से ही घायल हुए थे, उस दिन हे मार्केट में जिस व्यक्ति ने पुलिस बल का संचालन किया, उसकी ओर से यह बहुत बड़ी गलती थी । ऐसी हत्याएँ या मारकाट पहले नहीं देखी गयी। बॉर्न फील्ड ने यह बहुत बड़ी गलती की थी । इसके परिणामस्वरूप घायल और मारे गये लोगों के लिए वही जिम्मेदार है ।’’

बम किसने फेंका यह एक रहस्य है । पुलिस दावा करती है कि वह एक अराजकतावादी था, अल्बर्ट पार्सन्स का मानना था कि वह एक हड़ताल तोड़ने वाला घुसपैठिया था । गर्वनर आल्टगेल्ट ने 1893 में निष्कर्ष निकाला कि सम्भव है कि बम किसी दुश्मनी का बदला लेने वाले व्यक्ति ने फेंका हो ।’’

पॉल एवरिक ने व्यापक अध्ययन के बाद निष्कर्ष निकाला कि बम किसी अराजकतावादी द्वारा फेंका गया । सबसे संदिग्ध अराजकतावादी एडोल्फ स्नोबेल्ट था जो माइकल एसक्वाब का साला था । परन्तु एवरिक ने, जो बम काण्ड के बाद दो बार पकड़े और छोड़े गये, स्नोबेल्ट को इसका जिम्मेदार नहीं माना ।

बम फेंकने वाले को देखने वाले एक मात्र निरपेक्ष गवाह जॉन ब्रेनेट ने जो ब्योरा दिया उससे स्नोबेल्ट का कोई मेल नहीं था और एवरिक ने चिन्हित किया कि स्नोबेल्ट के क्रिया कलाप बम फेंकने वाले के रूप में असंगत जान पड़ते हैं । ‘‘यदि स्नोबेल्ट की जेब में बम होता तो क्या वह बम विस्पफोट की घटना के बाद माइकल एसक्वाब को छुड़ाने के लिए पुलिस स्टेशन जाता ? ये प्रश्न उस पर लगाये अभियोग पर संदेह करने के लिए पर्याप्त हैं ।

एवरिक द्वारा इस निर्णय पर पहुँचने के पीछे कि बम फेंकने वाला अराजकतावादी है । मुख्यतः दो अराजकतावादियों– रॉबर्ट रित्जेल और डायर लुम द्वारा दिये गये वक्तव्य थे । मृत्युदण्ड के बाद रित्जेल ने डॉ– अर्बन हार्टुंगे को बताया कि ‘‘बम फेंकने वालों का पता है, पर हमें अब इस बात को भूल जाना चाहिए ।’’ अगर उसने अपना अपराध स्वीकार कर भी लिया होता, तो हमारे साथियों की जान नहीं बचायी जा सकती थी ।

1891 मे लिखे एक निबंध में डायर लुम कहते हैं कि 4 मई की दोपहर को ऑगस्ट स्पाइस ने बाल्थासार राउ को उन जुझारू लोगों को यह बताते के लिए भेजा था कि हे मार्केट में हथियार के साथ नहीं आना है । लेकिन लुम लिखते हैं कि एक आदमी ने आदेश का उल्लंघन किया जो हमेशा खुद ही निर्णय लेता था । उसने यह कार्य अपनी जिम्मेदारी पर किया । वह बलि का बकरा बनने की अपेक्षा हत्याकाण्ड के विरोध की तैयारी करके मर जाने को वरीयता देता था ।

लुम का मानना है कि मुकदमें की पैरवी करने वाले कहते हैं कि 8 लोगों में से कोई भी बम फेंकने वाले को नहीं जानता था । हालाँकि उनमें से दो लोग बाद में उसे पहचान गये, लेकिन इनमें ‘‘न तो स्पाइस थे और न ही पार्सन्स ।’’ एवरीक का मानना था जिन दो लोगों ने बम फेंकने वाले को पहचाना, वे एंगेल और फिशर थे । लुम के अनुसार बम फेंकने वाले का नाम मुकदमें के दौरान ‘‘कभी चिन्हित नहीं किया गया और आज वह जनता के लिए अज्ञात है ।’’

महान महिला अराजकतावादियों में से एक, लुम की दोस्त और समर्थक बोल्टायरिन दे क्लेयरे की बातों में भी बम फेंकने वाले की पहचान अन्तर्निहित थी । 1899 के अपने स्मारक भाषण में दे क्लेयरे ने कहा ‘‘हे मार्केट में फेंका गया बम उस व्यक्ति का प्रतिरोध है जो इस बात का समर्थक था कि बोलने की स्वतंत्रता और लोगों के शान्तिपूर्वक इकट्ठा होने के कानूनी अधिकार की घोषणा को कम नहीं किया जाना चाहिए ।’’

और 1907 में द क्लेयरे ने कहा कि ‘‘हमारे साथी मारे जा रहे हैं, मैं देख सकती हूँ कि बम फेंकने वाले की अपनी पहचान उद्घाटित करने की कोई मंशा नहीं है । एक नकाबपोश मौन व्यक्ति के रूप में उसने पूरी दुनिया को पार किया और दुनिया पर अपनी छाप छोड़ गया । अब इस बात का भला क्या मतलब है कि वह कौन था, वह उन 8 आदमियों में से नहीं था जिन्हें राज्य ने बम फेंकने के दोष में दण्ड दिया ।’’

इन सुरागों से एवरीक ने निष्कर्ष निकाला कि बम फेंकने वाला सम्भवतया उस जर्मन अराजकतावादी सशस्त्र समूह का सदस्य था जिससे बाल्थासार राउ ने सम्पर्क किया था । उसकी पहचान अराजकतावादियों के एक छोटे से घेरे के अलावा पूर्णतया अज्ञात बमी रही और जॉन वर्नेर की गवाही के अनुसार उसकी लम्बाई 5 फुट, 9 या 10 इंच थी । उसके चेहरे पर मूँछे थीं पर दाढ़ी नहीं ।

अपनी पुस्तक के प्रकाशन के बाद एवरीक को डॉ– अदाह मोरर का एक पत्र मिला जो कैलिफोर्निया के बर्कले में मनोवैज्ञानिक थी । अपने पत्र में उन्होंने किसी ‘‘जेपी मेंग’’ के बारे में पूछा । एवरीक ने जिसकी पहचान 1883 की पीटर्सबर्ग कांग्रेस में शिकागो के अराजकतावादी सदस्य के प्रतिनिधि के रूप में की । मोरर ने पूछा, क्या पहले वाली बातें गलत थीं । मोरर का विश्वास था कि उस बातचीत का सम्बन्ध उनके नाना से है, जिस पर स्वयं मोरर को संदेह था कि बम उन्हीं ने फेंका था ।

छानबीन करने पर एवरीक ने पाया कि प्रतिनिधि का नाम जॉर्ज ही था न कि जे–पी– मेंग । तब डॉ– मोरर द्वारा दिये गये इस सुझाव का क्या हुआ कि बम फेंकने वाला मेंग था । मोरर ने एवरीक को ये जानकारी दी– मेंग का जन्म बावरिया में 1840 के आसपास हुआ और वह वयस्क होने पर अमरीका आया । वह शिकागो में बस गया और चाय बनाने का काम ढूँढा, शादी की और दो लड़कियों– लुईस और केंट का बाप बना । लुईस मोरर की माँ थी । 1883 में मेंग ने मजदूरों के अन्तरराष्ट्रीय संघ के उत्तरी समूह की सेना में काम शुरू किया । इसके सदस्यों में ऑस्कर नीबे, बाल्थासर राउ, रूडोल्पफ स्नाउबोल्ट और लुईस लिंग शामिल थे ।

लुईस ने कई बार अपनी बेटी को बिना व्याख्या किये बताया कि मेंग ने ही बम फेंका था– ‘‘यह वही था’’ उसने कहा । लुईस ने यह भी बताया कि हे मार्केट वाली घटना के दिन रूडोल्फ नामक एक व्यक्ति उसके घर में घुसा था । रूडोल्फ उसके पिता का साथी था और ‘‘वे दोनों पूरी रात रसोईघर में बातें करते रहे ।’’

मोरर के अनुसार 1907 में उसके जन्म के कुछ वर्ष पहले मेंग एक सैलून में लगी आग में मारे गये और वे मेंग का हुलिया बता पाने में असमर्थ थी । इतने पर भी एवरीक को मोरर की कहानी अकाट्य लगी । ‘‘स्वीकार किये गये तथ्यों से मेल खाने के कारण उदाहरण के लिए इसमें एडोल्फ स्नोबेल्ट के विषय में दी गयी जानकारी जिसके बारे में, लोग आम तौर पर नहीं जानते हैं, और एक जर्मन अराजकतावादी डायर लुम द्वारा बम फेंकने वाले व्यक्ति के विषय में दिया गया विवरण डायर लूम शिकागो समूह का एक ‘खुद मुख्तार’ लड़ाका था, आन्दोलन में जानी–पहचानी शख्सियत, परन्तु वह मुख्य नेताओं में से नहीं था और मुकदमें में इसका नाम भी नहीं था । डॉ– मोरर की कहानी सत्य की परिधि में है और इस पर विश्वास करने में मेरी रुचि है ।’’

बम फेंकने वाले की पहचान ने विद्वानों के समक्ष उलझन पैदा कर दी और यह हे मार्केट मुकदमें में अप्रासंगिक हो गया । अल्बर्ट पार्सन्स, ऑगस्ट स्पाइस, जॉर्ज एंगेल, सैम्युअल फिल्डेन, एडोल्फ फिशर, माइकल एसक्वाब, ऑस्कर नीबे और लुईस लिंग के ऊपर बम फेंकने के लिए नहीं, बल्कि हत्या करने का अभियोग लगाया गया । जिस समय बम फटा, इन व्यक्तियों में से केवल स्पाइस और फिल्डेन, केवल दो ही व्यक्ति वहाँ उपस्थित थे । परन्तु स्टेट अटॉर्नी जुलियस एस– ग्रिनेल ने घोषित किया कि ‘‘इन लोगों को अपराधी सिद्ध करो, इनको उदाहरण बनाओ, इनको फाँसी दो और तुम हमारी संस्थाओं को बचाओ ।

किन विचारों ने सामाजिक ताने–बाने को इतनी भारी चुनौती दी ? अल्बर्ट पार्सन्स ने अराजकतावाद को परिभाषित किया कि यह ‘‘ताकत का निषेध, सामाजिक मामलों में किसी भी प्राधिकार का उन्मूलन, किसी एक व्यक्ति पर दूसरे व्यक्ति के प्रभुत्व के अधिकार को न मानना है । यह सत्ता के कर्त्तव्य का, अधिकार का जनता के बीच स्वतन्त्र और समान रूप से बँटवारा है ।’’ स्पाइस ने कहा– ‘‘अराजकतावाद खून–खराबा नहीं, इसका मतलब लूट और आगजनी नहीं । ये दानवी कृत्य तो पूँजीवाद की चारित्रिक विशेषताएँ हैं । अराजकतावाद का अर्थ सबके लिए शान्ति और सुकून’’ है और लुईस लिंग के अनुसार ‘‘अराजकतावाद का मतलब है किसी एक व्यक्ति का दूसरे व्यक्ति पर प्रभुत्व और प्राधिकार का न होना––––’’

फिर भी 21 जून 1886 को जब अदालत में मुकदमा शुरू हुआ तो न्यायालय कक्ष में बम फेंकने के बारे में घिसीपिटी, खून की प्यासी और उन्मादी तस्वीर व्याप्त थी । जब मुकदमा शुरू हुआ, केवल सात लोग हिरासत में थे । बम फटने के बाद बुरे नतीजों के भय से पार्सन्स शिकागो से भाग गये और छह सप्ताह तक गिरफ्तारी से बचने में सफल रहे । लेकिन अपनी पत्नी और अटॉर्नी से विचार–विमर्श के बाद पार्सन्स ने आत्मसमर्पण करके साथियों के साथ मुकदमें का सामना करने का निश्चय किया । हर व्यक्ति इस बात से सहमत था कि इससे पलड़ा उनके पक्ष में झुक जाएगा । इसलिए मुकदमा शुरू होने ही वाला था कि पार्सन्स ने न्यायालय कक्ष में प्रवेश किया और नाटकीय रूप से अधिकारियों के सामने अपने आप को प्रस्तुत कर दिया ।

मुकदमा शुरू से ही एक पहेली बना हुआ था । एक विशेष अभिकर्त्ता अपने मनपसन्द और प्रभावशाली जजों की भर्ती कर रहा था और यह योजना कोई रहस्य नहीं थी ‘‘मैं इन लोगों से आह्वान करता हूँ कि वे अभियुक्तों के साथ हठधर्मितापूर्वक व्यवहार करें और समय जाया न करें । वे ऐसे लोगों को बुलाएँ जिनकी अभियोक्ता को जरूरत है ।’’ यह चाल कामयाब हुई । घटना के शिकार एक पुलिस वाले का रिश्तेदार और ऐसे ही पूर्वाग्रह ग्रस्त लोगों को जूरी में शामिल किया गया ।

मुकदमे के दौरान गवाहों ने झूठ बोला, अपनी कहानियाँ बदली और एक–दूसरे के बयानों का खंडन किया । सबूतों को बदलकर सरकारी पक्ष के अनुकूल बना दिया गया । सरकारी मुकदमे के पक्ष में झूठे सबूत बना लिये गये और सही सबूतों को झुठला दिया गया । मुकदमे का बड़ा हिस्सा अभियुक्तों द्वारा लिखे गये भड़काऊ लेखों पर केन्द्रित था जो शिकागो के उग्र अखबारों से लिये गये थे ।

यह मुकदमा शहर का सबसे दिलचस्प तमाशा बन चुका था और इसमें भारी भीड़ उमड़ रही थी । पूरे मुकदमे के दौरान जूरी के सदस्य ताश खेलते रहे और भद्रलोक जज गैरी के साथ बेंच पर बैठे रहे । जो लोग मुकदमे की कार्यवाही देखने के लिए आये, उनमें रोज सारा नीना स्टुअर्ट क्लार्क वैन जाण्ट भी थी जो विराट सम्पत्ति की वारिस, वासार की स्नातक थी । वैन जाण्ट ने बाद में उस फैशनेबुल शरारत का स्मरण किया ‘‘मैं उस समय किसी भी अभियुक्त को नहीं जानती थी, मुकदमे के नाम पर हो रहे प्रहसन के दौरान मैंने इस आशा से अदालत के कमरे में प्रवेश किया कि अन्दर मुझे मूर्खों, दुष्ट और अपराधी जैसे दिखने वाले लोगों का अनोखा जमावड़ा देखने को मिलेगा और उनमें से किसी को भी वहाँ न पाकर मैं बहुत आश्चर्यचकित हुई कि इस तरह का कोई व्यक्ति वहाँ था ही नहीं, बल्कि वे तो बुद्धिमान, दयालु और देखने में भले लोग थे । मेरे मन में रुचि पैदा हो गयी । लेकिन जल्दी ही मैंने पाया कि अदालत के अधिकारी, खुफिया एजेंसी और सारी पुलिस उन लोगों को दोषी सिद्ध करने पर तुली हुई थी इसलिए नहीं कि उन्होंने कोई अपराध किया था, बल्कि इसलिए कि उनका सम्बन्ध मजदूर आन्दोलन से था ।’’

वैन जाण्ट ने कुक काउन्टी जेल में कैदियों से मिलना शुरू किया और ऑगस्ट स्पाइस से हुई दोस्ती जल्दी ही उससे कहीं गहरे रिश्ते में बदल गयी । लेकिन वैन जाण्ट की मुलाकातों को नये नियम–कानूनों ने बाधित किया, जिसमें सिर्फ कैदियों की पत्नियों को ही मिलने की इजाजत थी । ‘‘मुझे यह साफ लग गया कि कैदियों को न्याय दिलाने के लिए मेरा प्रयास उस खास वर्ग को स्वीकार्य नहीं था, जो उन लोगों को खत्म करना चाहते थे । मेरी सामाजिक हैसियत और जान–पहचान के कारण उनकी यह भावना और बढ़ गयी ।’’ स्पाइस वैन जाण्ट ने आपस में शादी करने का निर्णय लिया, लेकिन अधिकारियों ने सहमति देने से इनकार कर दिया और विवाह का आयोजन स्पाइस की जगह उसके भाई को वैन जाण्ट के साथ खड़ा करके सम्पन्न किया गया ।

शादी के बाद इसके लिए अखबारों ने उसकी निंदा की, उसे पड़ोसियों द्वारा धमकाया गया और उसे अपनी मौसी से विरासत में मिलने वाले पाँच लाख डॉलर से वंचित कर दिया गया, क्योंकि वह एक ‘‘उचित शादी’’ करने में असफल रही, लेकिन वैन जाण्ट स्पाइस अपने उद्देश्य पर डटी रही । उसने स्पाइस की आत्मकथा प्रकाशित करवाई और अपने पति को मृत्युदण्ड के बाद अक्सर वह हे मार्केट में भाषण देने भी जाती थी ।

प्रतिवादियों के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण चश्मदीद गवाह शिकागो का मेयर कार्टर हैरीसन था । सम्भावित झड़प से चिन्तित हैरीसन 4 मई की हे मार्केट रैली में गया । कुछ समय बाद जब उसे लगा कि यहाँ कोई खतरा नहीं है तो वह पुलिस स्टेशन गया और उसने वॉनफील्ड से अपने आदमियों को वापस घर भेजने के लिए कहा । वॉनफील्ड इस बात के लिए तैयार हो गया । लेकिन ज्यों ही मेयर वहाँ से गया, उसने अपने आदमियों को हे मार्केट की ओर कूच करने का आदेश दे दिया ।

हैरीसन की गवाही के बावजूद जैसा कि पहले ही उम्मीद थी, अराजकतावादियों को दोषी करार दिया गया । सात पुलिसवालों के बदले सात अराजकतावादियों को फाँसी पर लटकाने की सजा दी गयी । आठवें आरोपी ऑस्कर नीबे को 15 वर्ष का कारावास मिला, जबकि राज्य के अटार्नी ने याचिका दायर की थी कि उसके खिलाफ अभियोग रद्द किया जाय ।

उसके बाद एक साल तक कानूनी और सार्वजनिक जोड़–तोड़ होती रही । लेकिन कोई लाभ नहीं हुआ । आखिरी दिनों में फील्डेन, स्पाइस और एसक्वाब ने माफी के लिए याचिका दायर की । जिसके लिए उनके साथियों ने उनकी भर्त्सना की । फिर फाँसी से दो दिन पहले स्पाइस ने अपनी याचिका वापस ले ली और दूसरे पत्र में उसने गवर्नर को लिखा कि ‘‘मैं आपसे सात लोगों की हत्या को रोकने की प्रार्थना करता हूँ । उन लोगों का एकमात्र अपराध यही है कि वे आदर्शवादी हैं, कि वे सभी के लिए अच्छे भविष्य की कामना करते हैं । यदि यह कानूनी हत्या जरूरी ही है, तब एक की हत्या कर दी जाय और इसके लिए मैं हाजिर हूँ । गवर्नर ने एसक्वाब और फील्डेन की याचिका मन्जूर कर ली और उनके मृत्युदण्ड की सजा को आजीवन कारावास में बदल दिया ।

6 नवम्बर को तयशुदा फाँसी से पाँच दिन पहले कैदियों को बन्दी गृह से हटा दिया गया और उनकी काल कोठरी की तलाशी ली गयी । पुलिस ने घोषित किया कि लुइस लिंग की काल कोठरी से उन्हें चार बम मिले । पार्सन्स को सन्देह था कि जनता की बढ़ती सहानुभूति के तूफान को थामने के लिए वहाँ बम रखा गया, जबकि दूसरों का मानना था कि लिंग ने ही बम छुपा रखा था ।

जिस समय लुइस लिंग की मृत्यु हुई, तब वह शहीदों में सबसे कम उम्र का, केवल 23 वर्ष का था और सबसे उग्र था, लिंग ने बम बनाया था, बल प्रयोग करने की वकालत की थी और मुकदमे की पूरी कार्रवाई के दौरान उसने कोई दिलचस्पी नहीं दिखायी । गवाहों को सुनने की जगह उसे कुछ पढ़ना पसन्द था ।

कैप्टन शाक ने एक पत्र में लिखा कि घृणा से दाँत पीसते हुए, उसकी पाशविक आँखें उसके नेत्र कोटरों से बाहर निकली जा रही थी–––– वह इस प्रकार आग बबूला हो रहा था, जैसे पिंजरे में कैद कोई जंगली शिकारी पशु हो । वह गुस्से में चुप था और उसकी प्रत्येक गतिविधि उसमें जुनून की ऊर्जा को प्रकट कर रही थी जो भयानक था । शाक के अनुसार ‘‘लिंग पूरे शिकागो में सबसे खतरनाक अराजकतावादी था ।’’

लिंग के बारे में अराजकतावादी और उनके समर्थक भी एकमत नहीं थे । स्पाइस उसे ‘‘गैर जिम्मेदार’’ और ‘‘उन्मादी’’ कहता था । माइकल एसक्वाब ने स्वीकार किया कि उसका लिंग से ‘‘दोस्ताना रिश्ता नहीं था’’ और ‘‘निश्चित रूप से एक ऐसा प्राणी था–––– जिसका कोई भी परिचित होना नहीं चाहता ।’’ कुछ समर्थकों को आशा थी कि लिंग को पागल घोषित करके फैसला उल्टा जा सकता है ।

लेकिन दूसरे कई लोग उसे नायक मानते थे । वोल्तेयरिन द क्लेयरे ने लिंग को ‘‘सुन्दर और बहादुर लड़का’’ बताया और एम्मा गोल्डमान ने ‘‘आठ लोगों में सबसे शानदार नायक’’ कहा । ‘‘उसकी कभी ने झुकने वाली भावना, अभियोग लगाने वालों और जजों के प्रति पूर्ण तिरस्कार, उसकी इच्छा शक्ति, उस 22 वर्षीय लड़के के बारे में हर चीज उसके व्यक्तित्व में रूमानियत और सुन्दरता ला देती थी । वह हमारे जीवन का प्रकाश पुंज बन गया ।’’

लिंग द्वारा अदालत में दिया गया अन्तिम जोशीला भाषण उस व्यक्ति की झलक प्रस्तुत करता है–

‘‘मैं तुम्हें बेलाग–लपेट और स्पष्ट बता रहा हूँ कि मैं ताकत का समर्थक हूँ । कैप्टन शाक को मैंने पहले ही कहा था कि अगर वे हमारे खिलाफ तोप का इस्तेमाल करते हैं, तो हम उनके खिलाफ डायनामाइट का प्रयोग करेंगे । मैं दोहराता हूँ कि मैं आज की ‘व्यवस्था’ का दुश्मन हूँ और दोहरा रहा हूँ कि जब तक मुझमें साँस बाकी है अपनी पूरी ताकत के मुकाबला करूँगा । मैं दोबारा बिना लाग लपेट के घोषणा करता हूँ कि मैं बल प्रयोग के पक्ष में हूँ । शायद आप सोचते हैं कि आप और अधिक बम नहीं फेंकेंगे, लेकिन मैं आपको आश्वस्त करना चाहता हूँ कि मैं फाँसी के तख्ते पर खुशी से मरूँगा । मुझे इस बात का पूरा विश्वास है कि जिन सैकड़ों–हजारों लोगों से मैंने बात की, वे मेरे शब्दों को याद रखेंगे और जब आप हमें फाँसी पर लटकाओगे, तब– मेरे शब्दों को गौर से सुनो, वे बम फेकेंगे! और इसी आशा में मैं तुमसे कहता हूँ– मैं तुम्हें तुच्छ समझता हूँ । मैं तुम्हारे कानून व्यवस्था और सेना के बल पर चलने वाले शासन का तिरस्कार करता हूँ । इसके लिए मुझे फाँसी दो!

11 नवम्बर 1887, ‘‘काले शुक्रवार’’ को ऑगस्ट स्पाइस, जॉर्ज एंगेल, एडोल्पफ और अल्बर्ट पार्सन्स के लिए फाँसी का तख्ता तैयार किया गया और उन्हें फाँसी पर चढ़ा दिया गया ।

अपने दो बच्चों और मित्र लिज्जी होम्स के साथ लूसी पार्सन्स ने फाँसी पर चढ़ने से पहले अपने पति को देखने की भरसक कोशिश की, लेकिन पुलिस ने उनकी मदद करने का वादा करके उन्हें एक पोस्ट से दूसरी पोस्ट पर घुमाया और फिर पुलिस लाइन के बाहर भेज दिया । जैसे–जैसे समय बीतता गया, बच्चे ठण्ड से ठिठुरने और रोने लगे । लूसी ने पुलिस लाइन को पार करने की कोशिश की । लूसी, लिज्जी और दोनों बच्चों को गिरफ्तार कर लिया गया, उन्हें शिकागो एवेन्यू स्टेशन ले जाया गया और निर्वस्त्र करके तलाशी लेने के बाद अलग–अलग कोठरियों में बन्द कर दिया गया ।

दोपहर के कुछ समय बाद एक महिला सहायिका वहाँ आयी और घोषणा की कि अब सब ‘‘खत्म हो चुका है ।’’ लिज्जी होम्स अपनी सहेली की पीड़ा भरी रुदन को सुनती रही, जब तक उन्हें रिहा नहीं कर दिया गया । लुइस लिंग ने फाँसी के तख्ते को बिलकुल ही नहीं देखा । फाँसी के एक दिन पहले लिंग ने एक सिगार पिया और उसके बाद उसने मुँह में डायनामइट रखकर आग लगा ली,  जिसके धमाके में उसका आधा सिर उड़ गया ।

मरने से पहले वह पीड़ादायक दर्द से कई घण्टों तक तड़पता रहा । कुछ लोगों का दावा था कि पुलिस ने सिगार में डायनामाइट रखा, लेकिन अधिकांश लोग मानते थे कि विद्रोही लिंग ने फाँसी देने वालों को धोखा देने के लिए ऐसा किया ।

एलेक्जेन्डर वर्कमैन ने एक पत्र में एम्मा गोल्डमैन को लिखा कि ‘‘पुलिस अच्छी तरह जानती थी कि लिंग को मरना है । फिर वह उसे क्यों मारना चाहते । इसके अलावा लिंग सम्भवतः ऐसा आदमी था जो दूसरों के बजाय खुद अपने हाथों मरना चाहता था ।’’

वाल्तेरिन दे क्लेयर जानती थीं कि लिंग ने आत्महत्या की है और 1897 में उन्होंने ‘‘अपने भाषण में कहा कि लिंग ने 10 नवम्बर को अपने मित्र द्वारा दिये गये डायनामाइट से कानून पर विजय हासिल कर ली!’’ दे क्लेयर ने अपने पुत्र को बताया कि वह दोस्त डायर लुम था । लुम ने अपने दोस्त को लिखा ‘‘कि वह समर्पित और भयमुक्त था । कोई भी तात्कालिक इच्छा उसको अपने सिद्धांत से विमुख नहीं कर सकी । लिंग बच्चे की तरह जिया और उसी तरह मरा ।’’

फाँसी के बाद शहीदों के पार्थिव शरीरों को उनके घर वापस भेज दिया गया । लिंग का परिवार नहीं था । उसे जॉर्ज एंगेल के घर और खिलौने की दुकान पर ले जाया गया, जिनसे उसका घनिष्ठ सम्बन्ध बन गया था । किसी ने लिंग के शरीर को पूरे रास्ते प्रदर्शित करने के बदले हजारों डॉलर का भुगतान करने की पेशकश की, जिसे एंगेल की विधवा ने गुस्से में ठुकरा दिया ।

एल्बर्ट के शरीर को जब उसके तीसरी मंजिल के छोटे से मकान में लाया गया, तो लूसी ब्राउन रोते–रोते बेहोश हो गयी । लिज्जी होम्स पूरे दिन उसके साथ रही, जबकि सैम्युएल फिल्डेन की पत्नी उसके दोनों बच्चों को दिलासा देने की कोशिश कर रही थी ।

वह घर, जहाँ ऑगस्ट स्पाइस अपनी माँ और भाई–बहनों के साथ रहता था अभी भी शिकागो वीकर पार्क में है जैसा कि 1887 डेली न्यूज अखबार में वर्णित किया गया था उसकी सहज ही कल्पना की जा सकती है । ‘‘कि लम्बी सफेद धारियाँ और काला क्रेप कागज दरवाजे की घंटी से लटका हुआ था और मातम के सबसे बड़े चिन्हों में क्रेप कागज से बना बड़ा सा काला गुलाब था, जिसके अन्दर से बाहर लाल प्रकाश पुंज हवा में लहरा रहा था––––

13 नवम्बर को स्पाइस के अन्तिम संस्कार की प्रक्रिया शुरू हुई । उसके ताबूत को बग्गी में रखा गया, जबकि उसके परिवार वाले इन्तजार में खड़ी एक गाड़ी में बैठे हुए थे । शिकागो की सड़क पर चल रही शवयात्रा सभी शहीदों के शव को लेने के लिए उनके घर पर रुकती । शिकागो की सड़कों पर बग्गी और वाहन गाड़ी के पीछे लोगों की कतार लगी थी और वे आहत और उदास मन से जुलूस में चल रहे थे । यह शिकागो के इतिहास की सबसे बड़ी शव यात्रा थी, क्यों अर्थी के पीछे लगभग दो लाख लोग पंक्तिबद्ध होकर चल रहे थे ?

भयग्रस्त अधिकारियों ने सख्त निर्देश जारी कर दिये कि कोई बैनर नहीं, झण्डे नहीं और न ही कोई हथियार । संगीत में केवल शोकगीतों की इजाजत थी। प्रदर्शन और भाषण की मनाही थी और शवयात्रा केवल शहर के बाहरी इलाके से और दोपहर 12 बजे से 2 बजे के बीच ही निकाली जा सकती थी । निषेधाज्ञा केवल एक बार तोड़ी गयी । ‘‘जैसे ही शवयात्रा मिलवॉकी एवेन्यु पहुँची, तभी गृहयुद्ध के दौर के एक बुजुर्ग सेनानी तेजी से पहली कतार के सामने आये और उन्होंने एक छोटे से अमरीकी झण्डे को लहराया । पुलिस ने उन्हें परेशान नहीं किया, वे झण्डे को जुलूस के पीछे ले गये ।

शवयात्रा पुराने विसकोसिन स्टेशन पर खत्म हुई, जहाँ विशेष रूप से किराये पर लिए गये रेल के डिब्बे परिजन को जंगल में वालदेन कब्रगाह ले जाने के लिए इन्तजार कर रहे थे । दूसरे लोग पैदल चल कर कब्रगाह पहुँच गये, जहाँ 10,000 लोग विलियम ब्लेक को सुनने के लिए इकट्ठा हुए। अराजकतावादी अटार्नी ने प्रशस्ति भाषण दिया ।

उन लोगों को अराजकतावादी कहा जाता था । दुनिया के सामने उन्हें मार–काट, दंगा–फसाद और खून–खराबे से प्रेम करने और बेवजह इस वर्तमान व्यवस्था के प्रति घृणा से भरे हुए लोगों के रूप में प्रस्तुत किया गया । ये बातें सच्चाई का सरासर माखौल उड़ाने जैसी हैं । वे लोग शांति से प्यार करते थे, जो उन्हें जानते थे वे उन्हें प्यार करते थे, उन पर विश्वास करते थे । वे लोग जीवन के प्रति उनकी निष्ठा और ईमानदारी को समझते थे–––– और अराजकतावादी के रूप में उनके सम्पूर्ण विचार और दर्शन को भी, कि वे जनता का राज लाना चाहते थे, जिसे इन शब्दों में व्यक्त किया जा सकता है– ‘‘व्यवस्था बिना जोर जबरदस्ती के’’ ।

जैसे ही दिन ढला, ऑगस्ट स्पाइस, अल्बर्ट पार्सन्स, जार्ज एंगेल, एडोल्फ फिशर के मृत शरीरों को अस्थायी शवगृह में रखा गया । 18 दिसम्बर को उनके पार्थिव शरीर को स्थायी रूप से कब्रगाह में स्थानान्तरित कर दिया गया ।

आज अल्बर्ट विनर द्वारा बनायी गयी इमारत हे मार्केट कब्रगाह की शोभा बढ़ा रही है । यह ताँबे से बना है और ‘मार्सिलेज’ (फ़्रांसीसी क्रान्ति का गीत) से प्रेरित है । स्मारक के आधार स्तम्भ पर अंकित शब्द ऑगस्ट स्पाइस के हैं जो उन्होंने फाँसी के तख्ते से चीखते हुए कहे थे– ‘‘वह दिन आएगा जब हमारी चुप्पी हमारे उन शब्दों से अधिक प्रभावशाली होगी, जिन्हें आज तुम दबा रहे हो ।’’ गवर्नर जॉन अल्टगेल्ड के क्षमा संदेश का एक अंश उसके पीछे अंकित है, उन आठ शहीदों में से सैम्युअल फिल्देन को छोड़कर बाकी को यहीं दफनाया गया ।

हे मार्केट इमारत के ईद–गिर्द जाने–माने कार्यकर्ताओं की कब्रें हैं जो पार्सन्स की पत्नी लूसी और उनके दो बच्चों तथा उसके बगल में नीना जैण्ट स्पाइस की कब्र से घिरी है । वैन जैण्ट की कब्र पर नाम नहीं है क्योंकि इसके लिए पैसे नहीं थे ।

स्मारक के नजदीक ही राजधर्म विरोधियों की कब्रें भी कतार में हैं, जहाँ एम्मा गोल्डमैन की कब्र पर एक बड़ा सा शिलालेख है । उनकी मृत्यु 1940 में कनाडा में हुई थी । उसके पास ही केली, एलिजाबेथ गर्ली पिलन, विलियम जैड फॉस्टर, यूजेन डेनिस, वाल्टेरिन डे क्लेयरे, बेन, रीटमैन और अलक्जेंडर ट्रेचेनबर्ग की साधारण पत्थर की मूर्तियाँ बनी हैं ।

‘‘बिग बिल’’ के बाद 1928 में हेवुड की मास्को में मृत्यु हुई । उनका आधा शरीर क्रेमलिन की दीवार में दफनाया गया और आधा वालदेइ पहाड़ के ऊपर से चारों ओर बिखेर दिया गया । जो हिल को 19 नवम्बर 1915 में उटाह की सरकार ने फाँसी पर चढ़ाया, जिसे आई डब्ल्यू–डब्ल्यू के द्वारा शिकागो वापस लाया गया । पाँच हजार लोग जो के पार्थिव शरीर को अन्तेष्टि से पहले अन्तिम विदाई देने के लिए थैंक्स गीविंग डे के जुलूस में शामिल हुए । उसके बाद उनकी अस्थियाँ उटाह को छोड़कर अमरीका के सभी प्रान्तों, दक्षिण अमरीका, यूरोप, एशिया, दक्षिण अप्रफीका, न्यूजीलैंड और आस्ट्रेलिया के लिए लिफाफे में भरकर पहुँचा दी गयी । 1 मई 1916 को उन लिफाफों को एक साथ खोला गया और जो हिल पुरी दुनिया में फैल गये । इलियानोस प्रान्त में अस्थियाँ बिखेरी गयी ।

और उसके अलावा मोर्ट शाफनर भी हैं जिनकी मृत्यु 1973 में हुई थी । जब हाईस्कूल में थे तभी 18 साल की उम्र में शाफनर ने वियतनाम युद्ध का विरोध करने वाले चार अध्यापकों पर की गई फायरिंग का विरोध किया । उसने नील्साऊनशिप स्कूल बोर्ड तक दौड़ लगा कर चुनाव के नियमों को चुनौती दी । उसका नाम मतदाता सूची से हटा दिया गया लेकिन तीन सप्ताह बाद उस कानून को बदल दिया गया । जब वह बीस साल की उम्र में अचानक हृदयाघात से मर गया तब उसके परिवार ने उसे यहाँ दफनाने का फैसला लिया, ताकि वहाँ आने वाले बाल्डेन को याद दिलायें कि सामाजिक बदलाव के लिए संघर्ष जारी है ।

 

(यह  लेख हे मार्केट के अराजकतावादियों की  सौवीं बरसी की याद में मंथली रिव्यू  पत्रिका में  प्रकाशित हुआ था जिसे  बाद में मंथली रिव्यू प्रेस से  प्रकाशित पुस्तक हिस्ट्री एज इट हैपन्ड में संगृहीत किया गया.यह पुस्तक हिंदी में गार्गी  प्रकाशन से इतिहास जैसा घटित हुआ शीर्षक  से प्रकाशित हो  चुकी है. प्रस्तुत लेख का अनुवाद दिनेश प्रखर ने  किया  है. )

हिन्दू राष्ट्रवाद के कुतर्क– मेघनाद देसाई

 

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निम्नलिखित प्रस्थापनाएं हिन्दू राष्ट्रवादी सिद्धांत के केंद्र में हैं-

  • भारत प्रागैतिहासिक काल से ही भारतवर्ष या आर्यावर्त के रूप में एक एकल राष्ट्र रहा है.
  • जब मुस्लिम आक्रमणकारी आठवीं शताब्दी के बाद उत्तर-पश्चिम से आये, तभी से भारत गुलाम हो गया– पहले मोहम्मद बिन कासिम और मोहम्मद गजनी तथा बाद में दिल्ली सल्तनत और फिर मुग़ल साम्राज्य. मुस्लिम विदेशी हैं. विदेशी के प्रति इस घृणा के जरिए यह बात स्वयंसिद्ध और स्थापित कर दी जाती है कि आर्य भारत में कहीं और से नहीं आये थे. सिन्धु घाटी सभ्यता और आर्यों के आक्रमण की कहानी के बीच सामंजस्य बिठाने को लेकर इनमें एक बड़ी उलझन है. हिन्दू राष्ट्रवादी इस बात से साफ-साफ इनकार करते हैं कि आर्य विदेशी थे.
  • अंग्रेजों ने एक एकल भारतीय पहचान निर्मित नहीं की. यह तो हमेशा से ही मौजूद थी. मैकाले ने जो शिक्षा प्रणाली लागू की, उसने अभिजात्यों को पैदा किया– मैकाले-पुत्र, जो विदेशियों की तरह बर्ताव करते हैं और सोचते हैं.
  • 1947 में 1200 साल की गुलामी का अन्त हुआ. (नरेन्द्र मोदी ने अपने निर्वाचन के बाद संसद के केन्द्रीय सौंध में अपने पहले भाषण के दौरान यह बात कही.) भारत अंततः एक हिन्दू राष्ट्र के रूप में अपनी पहचान का दावा करने के लिए स्वतन्त्र हुआ.
  • हालाँकि कांग्रेसी धर्मनिरपेक्ष, मुसलामानों को विशेषाधिकार देते रहे, जिनकी देशभक्ति पर हमेशा संदेह किया जाना चाहिए, क्योंकि उनका देश पाकिस्तान है.फर्जी इतिहास की बकवासये प्रस्थापनाएं नाना प्रकार के अवधारणात्मक और ऐतिहासिक मुद्दे उठाती हैं. आइये उनकी जांच-पड़ताल करे—पहला, मूल निवासी बनाम विदेशी का मुद्दा है. अंग्रेज स्पष्ट रूप से विदेशी थे. वे जब यहाँ आये तब उनको यहाँ कुछ करने का अवसर था और उन्होंने यहाँ उस तरह का “उपनिवेशीकरण” नहीं किया जिस तरह रोडेशिया या आस्ट्रेलिया में. दूसरी ओर मुसलमान शासक वापस नहीं गये और उन्होंने भारत को अपना घर बना लिया.यह हिन्दू राष्ट्रवादियों के लिए एक समस्या पैदा करता है. यह सच्चाई है कि मुसलमान 1200 साल से यहीं के निवासी हैं, फिर भी इनकी निगाह में वे भारत के निवासी नहीं हैं. वे हमेशा-हमेशा के लिए विजातीय ही रहेंगे. यह अजीबोगरीब सिद्धात है, क्योंकि भारत अपने पूरे इतिहास के दौरान “विदेशी” कबीलों का शरणस्थल रहा है– शक, हूण, काला सागर के पार से आनेवाले बंजारे और दूसरी “नस्लें” जो सब के सब हिन्दू धर्म में परिवर्तित होती गयीं. लेकिन फिर भी 1200 साल काफी नहीं हैं. तो फिर आर्यों के बारे में क्या कहेंगे? क्या आर्य भी मध्य यूरोप या उत्तरी ध्रुव के करीब से नहीं आये थे, जैसा की बाल गंगाधर तिलक ने तर्क द्वारा स्थापित किया है?

    यह कहना कि आर्य विदेशी हैं, हिन्दुत्व को विदेशी धर्म बना देता है. फिर तो आदिवासी–- जनजातियाँ ही एकमात्र असली मूलनिवासी होंगे, जैसा कि कुछ दलित विद्वानों ने तर्क दिया है. यही कारण है कि हिन्दू राष्ट्रवादी आर्यों का विदेशी मूल का होना स्वीकार नहीं करते हैं, हिन्दू राष्ट्रवादी आख्यान के साथ मेल बैठने के लिए आर्यों को मौलिक रूप से यहाँ का मूलनिवासी बताना जरूरी है, जो एक ऐसे काल की कल्पना करते हैं जब किसी न किसी रूप में पूरे भारत में तत्क्षण हिन्दू धर्मं स्थापित हुआ था, जिसके पीछे वेद और ब्राह्मणों के बलिदान इत्यादि की भूमिका थी. इसी कारण से हिन्दू भारत की सामान्य भाषा के रूप में संस्कृत का होना भी जरूरी होगा.

    यह फर्जी इतिहास की बकवास है. हिन्दू जिस धर्म को व्यवहार में लाते हैं उसका वेदों से बहुत कम ही सम्बन्ध है. वैदिक देवों की अब पूजा नहीं होती. विष्णु, शिव और काली का हिन्दू मंदिरों में प्रादुर्भाव वेदों के कम से कम 1000 साल बाद ही हुआ. ब्राह्मणवाद (जो हिन्दू धर्म का सही नाम है) का धीमी गति से प्रसार जो इसके केन्द्रीय स्थल पंजाब से दिल्ली क्षेत्र की ओर तथा बाद में उत्तर प्रदेश और बिहार की ओर हुआ, इसका अच्छी तरह मानचित्र निरूपण किया गया है. यह भी अच्छी तरह ज्ञात है कि ईशा पूर्व छठी शताब्दी से आजीविका, जैन धर्म और बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार में पाली और अर्धमागधी की महत्वपूर्ण भूमिका थी.

    बौध धर्म और ब्राह्मणवाद के बीच एक हजार सालों तक संघर्ष चला जिसके बाद ही ब्राह्मणवाद को विजयी घोषित किया जा सका. भारत लगभग उसी समय एक हिन्दू राष्ट्र बना जब शंकराचार्य ने बौद्धों से बहस की और उनको पराजित किया. हालाँकि अगर हिन्दू राष्ट्रवादियों के कालक्रम को गंभीरता से लें, तो यह मुसलामानों का “गुलाम” बनने के ठीक बाद का समय रहा होगा.
    हिन्दू राष्ट्रवादियों की रणनीति बौद्ध धर्म और ब्राह्मणवाद के बीच के किसी भी टकराव को नकारना और यह दावा करना है कि बुद्ध विष्णु के अवतार थे. यह दावा सातवीं शताब्दी तक पुराणों में नहीं मिलता, जिस समय तक बौद्ध धर्म बाहर का रास्ता पकड़ रहा था. भारत को इतिहास के पूरे दौर में एक हिन्दू राष्ट्र के रूप में परिभाषित करने के लिए हिन्दुत्व ही पर्याप्त नहीं है.

    सावरकर ने हिन्दुत्व पर लिखे अपने लेख में इस वृत्त को चौकोर बनाने की कोशिश की थी. वे एक आधुनिकतावादी थे, न कि किसी धर्म के अनुयायी. राष्ट्र के बारे में उनका विचार उस दौरान राष्ट्रीयता के बारे में प्रचलित उन फैशनेबल विचारों से निकले थे जो यूरोप के नये पैदा हुए राष्ट्रों द्वारा ग्रहण किये गये थे, उनमें से कई पहले हैब्सबर्ग साम्राज्य के अंग रहे थे जो 1918 में विघटित हो गया था, जैसे– हंगरी, पोलैंड, चेकोस्लोवाकिया. राष्ट्रीयता भूभाग पर आधारित होती थी और किसी विशेष भूभाग में पैदा हुए लोग उस राष्ट्र के सदस्य होते थे.

    उनका हिन्दुत्व हिन्दू धर्म से बंधा नहीं था. मतलब यह कि कोई भी व्यक्ति जो सिन्धु की धरती पर जन्मा हो वह हिन्दू है और हिन्दुत्व का अंग है. इसका एक गौण पाठ है कि हिन्दू, मुसलमानों से कहीं अधिक हिन्दुत्व का अंग हैं. लेकिन मुसलमान हिन्दुत्व के अंग हो सकते हैं यदि अपनी जन्मभूमि के प्रति वफादार हों. बाद वाले हिन्दू राष्ट्रवादियों ने सावरकर के हिन्दुत्व की धारणा को तो अपना लिया, लेकिन उनके धर्मनिरपेक्ष सिद्धांत को नहीं अपनाया.

    गुलामी के बारे में भ्रामक विचार

    भारत के एक इतिहास के रूप में, हिंदू राष्ट्रवादी कहानी उतनी ही आंशिक और एकांगी है जितनी नेहरूवादी दृष्टिकोण ने पैदा की है. निश्चय ही, ये दोनों उत्तर भारतीय पक्षपात से भरी हुई कहानियाँ हैं. वे दिल्ली और उसके शासकों को ही सम्पूर्ण भारत मानते हैं. मुस्लिम हमलावर संभवतः आठवीं शताब्दी में सिंध और सौराष्ट्र आये और बारहवीं सदी में दिल्ली सल्तनत की स्थापना की. लेकिन वे विंध्य के दक्षिण में प्रवेश कभी नहीं कर पाये.

  • Secularism-630x315दक्षिण भारत में मुस्लिम आप्रवासियों के बारे में उत्तर भारत से बहुत ही अलग इतिहास है. जब औरंगजेब काफी बाद में, सत्रहवीं सदी में दक्षिण की ओर गया, उससे पहले दक्षिण भारत मुस्लिम शासन से “पीड़ित” नहीं था. दक्षिण में हिन्दू रजवाड़े एक समय मुस्लिम शासकों के साथ सहअस्तित्व में थे, लेकिन यह केवल दूसरी सहस्राब्दी के मध्य में ही सम्भव हुआ। “गुलामी के 1,200 साल” का विचार पूरी तरह फर्जी है। असम किसी भी मुस्लिम सत्ता द्वारा कभी भी जीता नहीं गया.लेकिन अंततः “सही मायने में वस्तुगत” इतिहास कभी नहीं लिखा जायेगा. किसी भी राष्ट्र में, कभी नहीं लिखा गया. बहस और पुनर्व्याख्यायें हमेशा चलती रहती हैं. अकादमियों को संरक्षण देकर उनका इस्तेमाल इतिहास की सरकारी लाइन को पुख्ता करने के लिए किया जा सकता है. अगर शोध के लिए धन की आपूर्ति सरकार की तरफ से हो रही है तो निष्पक्ष अनुसंधान की पवित्रता की गारंटी नहीं की जा सकती. हालाँकि भारत में, अनुसंधान के लिए निजी परोपकारी स्रोतों से धन मुहैया कराने की परंपरा नहीं रही है. सरकार ने उच्च शिक्षा के सभी दरवाजों पर सरकार की पहरेदारी है, जिसके लिए कांग्रेस का जड़ीभूत पूर्वाग्रह जिम्मेदार है जो आजादी के बाद के शुरूआती तीस सालों तक बेरोकटोक शासन करती रही. यह पूर्वाग्रह रिस-रिसकर अच्छी तरह से भाजपा में घुस चुका है.चिंता की बात महज हिंदू राष्ट्रवाद का विचार ही नहीं है. चिन्तित करनेवाली बात यह है कि खुद भाजपा सरकार इस खास नजरिये का प्रचारक होगी.(मेघनाद देसाई लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में अर्थशास्त्र के मानद प्रोफेसर हैं और मशहूर पुस्तक द रीडिस्कवरी ऑफ़ इण्डिया एण्ड डेवलपमेंट एण्ड नेशनहुड के लेखक हैं. आभार– स्क्रोल डॉट इन. अनुवाद—दिगम्बर)

जेवियर हेरौद पेरेज़ की कविता

jeviyar harod parej जेवियर हेरौद पेरेज़ (1942-1963) पेरू के कवि और नेशनल लिबरेशन आर्मी सदस्य थे। अठारह साल की उम्र में उनके दूसरे कविता संग्रह को पेरू का सर्वोच्च साहित्यिक सम्मान प्रदान किया गया।

जनवरी 1963 में,  21 वर्षीय कवि जेवियर हेरौद  और एलेन इलियास के नेतृत्व में एक क्रान्तिकारी समूह ने हथियार लेकर बोलीविया की सरहद पार की और दक्षिणी पेरू में प्रवेश किया। गंभीर बीमारी से ग्रस्त 15 सदस्यीय टीम ने इलाज के लिए प्योर्तो माल्दोनादो शहर में प्रवेश करने का फैसला किया। स्थानीय पुलिस समूह को पहले ही सूचना मिल गयी थी. पेरू की पुलिस ने 15 मई को हेरौद को  सीने में गोली मार दी जब वे एक डोंगी में बैठ कर शहर से गुजर रहे थे। वह एक ऐसा दौर था जब लातिन अमरीका संघर्ष और सृजन के नए-नए कीर्तिस्तम्भ खड़ा हो रहे थे। उनकी मृत्यु के चार साल बाद ही सीआईए की साजिशों के तहत चे ग्वेरा की बोलीविया में इसी तरह हत्या की गयी थी। प्रस्तुत है जेवियर हेरौद पेरेज़ की एक कविता—

नदी हूँ मैं

1.

मैं एक नदी हूँ, विराट पत्थरों से होकर बहती,
कठोर चट्टानों से होकर गुजरती,
हवा तय करती है मेरे रास्ते।
मेरे आस-पास के पेड़ बारिश में सराबोर हैं।
मैं एक नदी हूँ, भरपूर गुस्से के साथ बहती नदी,
बेपनाह प्रचंडता के साथ,
जब भी कोई पुल अपनी तिरछी परछाईं मुझमें बिखेरता है।

2.

मैं एक नदी हूँ, एक नदी,
एक नदी, हर सुबह स्फटिक की तरह साफ़।
कभी-कभी मैं नाजुक और विनम्र होती हूँ।
मैं उर्वर घाटियों से शान्तिपूर्वक फिसलती हूँ।
मैं पशु और सीधे-सच्चे लोगों को
जितना चाहें पिलाती हूँ अपना पानी।
दिन में बच्चे तैर-तैर आते हैं मेरे भीतर
रात में स्पन्दित प्रेमी झाँकते हैं मेरी आँखों में।
और डुबकी लगाते हैं
मेरे भुतहे पानी के गहरे अँधेरे में।

3.

मैं एक नदी हूँ।
लेकिन कभी-कभी होती हूँ बेरहम और मजबूत।
कभी-कभी जिन्दगी या मौत का नहीं करती सम्मान।
झरने के उत्ताल तरंग में उछलती-कूदती,
मैं  बार-बार पीटती हूँ चट्टानों को
अनगिनत टुकड़ों में तोड़ती हूँ।
पशु भागते हैं। वे भागते हैं।
जब मैं उनके मैदानों में सैलाब बनकर उतरती हूँ।
जब मैं उनकी ढलानों में बोती हूँ छोटे-छोटे कंकड़-पत्थर।
जब मैं उनके घरों और चरागाहों को डुबोती हूँ।
जब बाढ़ में डुबोती हूँ उनके दरवाजे और उनके दिल,
उनकी उनके शरीर और उनके दिल।

4

और यह तब होता है, जब मैं तेजी से नीचे आती हूँ–
जब मैं उनके दिलों में पैठ सकती हूँ
और उनके लहू पर भी काबू कर सकती हूँ
और मैं उनके अंदर से उनको निहार सकती हूँ।
फिर मेरा गुस्सा शांत हो जाता है
और मैं एक पेड़ बन जाती हूँ।
मैं एक पेड़ की तरह खुद को जड़ लेती हूँ
और पत्थर की तरह मौन हो जाती हूँ
काँटा रहित गुलाब की तरह मैं शान्त हो जाती हूँ।

5

मैं एक नदी हूँ.
मैं नदी हूँ अनन्त खुशियों की.
मैं महसूस करती हूँ दोस्ताना शीतल हवाएँ.
महसूस करती हूँ अपने चेहरे पर मंद समीर
अपनी अन्तहीन यात्रा के दौरान.

6

मैं नदी हूँ जो यात्रा करती है
किनारों, सूखे पेड़ों और रूखे पत्थरों के साथ,
मैं नदी हूँ जो हिलोरे मारती गुजरती है
तुम्हारे कानों, तुम्हारे दरवाजों और तुम्हारे दिलों से होकर.
मैं नदी हूँ जो यात्रा करती है
घास के मैदानों, फूलों, गुलाब की झुकी डालियों से होकर,
मैं एक नदी हूँ जो यात्रा करती है
सडकों के साथ-साथ, धरती के आरपार, नम आकाश के नीचे.
मैं नदी हूँ जो यात्रा करती है
पहाड़ों, चट्टानों और खारे झरनों से होकर.
मैं नदी हूँ जो यात्रा करती है
मकानों, मेजों, कुर्सियों से होकर.
मैं नदी हूँ जो यात्रा करती है
इन्सान के भीतर— पेड़, फल, गुलाब, पत्थर,
मेज, दिल, दिल, दरवाजा—
हर चीज जो मेरे आगे आये.

7

मैं नदी हूँ जो गाती है लोगों के लिए भरी दुपहरी में.
मैं उनके कब्र के आगे गाती हूँ.
मैं उन पवित्र स्थानों की ओर मुड़ जाती हूँ.

8

मैं नदी हूँ जो रात में बदल गयी है.
मैं उतरती हूँ उबड़-खाबड़ गहराइयों में,
भुला दिए गये अनजान गाँवों के निकट,
लोगों से अटी पड़ी खिडकियों वाले शहरों के करीब.
मैं नदी हूँ,
बहती हूँ घास के मैदानों से होकर.
हमारे किनारे खड़े पेड़ जीवित हैं कबूतरों के संग-साथ.
पेड़ गाते हैं नदी के साथ,
पेड़ गाते हैं मेरे पंछियों के ह्रदय से,
नदियाँ गाती हैं मेरी बाहों में बाहें डाल.

9

वह घड़ी आएगी
जब मुझे विलीन हो जाना पड़ेगा
सागर में,
कि मिला सकूँ मैं अपना निर्मल जल उसके धुँधले पानी में.
हमें अपने चमकीले गीत को चुप करना होगा,
हमें बन्द करना होगा वह गपशप
जो प्रभात की अगवानी में हर रोज किया करती थी,
मैं अपनी आँखें सागर जल से धो लूँगी.
वह दिन आएगा,
और उस अनन्त सागर में
मैं नहीं देख पाउंगी अपने उर्वर खेतों को,
नहीं देख पाऊँगी मैं अपने हरे पेड़ों को,
मेरे आसपास की हवा,
मेरा निर्मल आकाश, मेरी गहरी झील,\
मेरा सूरज, मेरे बादल,
मैं कुछ नहीं  देखपाऊँगी,
सिवाय उस अनन्त नीलाभ स्वर्ग के
जहाँ हर चीज घुलीमिली है,
पानी के विराट विस्तार में,
जहाँ एक और गीत या कोई दूसरी कविता का
इसके सिवा कोई अर्थ नहीं होगा
कि कोई तुच्छ नदी बहकर नीचे आती,
या कोई हहरारती नदी मुझ से मिलने आती,
मेरे नए चमकीले पानी में,
हाल ही में विलुप्त मेरे जल में.

(अनुवाद- दिगम्बर)