गुंठर ग्रास की कविता : यूरोप के लिए शर्मनाक 

gunter_grass

(फासीवाद-विरोधी, नोबेल पुरस्कार प्राप्त, 87 वर्षीय जर्मन साहित्यकार गुंठर ग्रास का 13 अप्रैल को देहांत हो गया. तीन साल पहले उन्होंने ज्वलंत सामयिक मुद्दों पर दो कवितायेँ लिखी थीं जो अपनी ताप-तेवर और प्रतिरोधी स्वर के चलते काफी विवादास्पद हुईं. एक कविता इजराइल के युद्धोन्माद पर और दूसरी नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के चलते यूनान की तबाही पर. यह उसी दूसरी कविता का अंग्रेजी से किया गया अनुवाद है. अनुवाद बहुत ही अनगढ़ है, फिर भी इसका कथ्य समसामयिक है, इसी लिए जैसा भी बन पड़ा, आपके सामने प्रस्तुत है. आज भी दुनिया भर में नवउदारवादी लूट-खसोट जारी है…. यह कहानी सिर्फ यूनान की नहीं है.)

 

उथल-पुथल के करीब, क्योंकि बाज़ार न्यायसंगत नहीं, तुम उस देश से बहुत दूर हो गये जो तुम्हारा पालना था.

जो किसी की आत्मा से खोजा और पाया गया था, वही आज बेकार माना ज़ा रहा है कूड़ा-कबाड़ की तरह.

 

वह देश जिसके बारे में तुम कहते थे कि तुम उसके आभारी हो, पीड़ित है, जैसे किसी कर्जदार को कटहरी में नंगा लिटा कर कील ठोकी ज़ाय.

गरीबी से तबाह देश जिसका संचित धन तुम्हारे लूट के अजायब-घरों की शोभा बढ़ा रहा है.

 

जिन लोगों ने (दूसरे विश्वयुद्ध ज़र्मन नाजी आक्रमणकारी सैनिक) देश पर प्रहार किया, उन्हें द्वीप मिले उपहार में, बन्दूक की नोक पर पहन ली पोशाक और भर ली अपने थैलों में किताबें (प्राचीन यूनानी काव्य से अनुप्राणित ज़र्मन कवि) होल्डरलिन की.

 

तुमसे सहा नहीं गया वह देश जिसके कर्नलों को कभी सहा था तुमने गठबंधन का सहयोगी मानकर.

वह देश जिसने अपने अधिकार खो दिये, जिसका बेल्ट कसा गया और दुबारा कसा गया उन गुस्ताख ताकतवरों द्वारा.

 

एंटीगोन तुम्हें चुनौती दे रही है काले कपड़े पहनकर, और देशभर में लोग जिनके तुम अतिथि रहे, पहने हैं मातमी लिबास.

हालाँकि देश से बाहर, क्रोएसस के अनुयायियों ने बटोर ली चमकते सोने की ढेरी और जमा कर दी तुम्हारी तिजोरियों में.

 

और अंत में शराब, पियो! यूरोपीय अधिकारियों की जयजयकार करनेवालो चिल्लाओ.

हालाँकि, सुकरात तुमको लौटा रहा है हेमलोक विष से लबालब प्याला.

 

लानत है तुम पर एक सुर में गानेवालो, कि गिरोह्बंदी ही तुम्हारी फितरत है, उन खुदाओं की लानत तुम पर जिनके ओलिम्पस पर्वत को तुम चुरा रहे हो.

विवेकहीन बर्बादी के शिकार होगे तुम, उस देश के बगैर जिसके विवेक ने तुम्हारी खोज की थी, यूरोप.
(प्रस्तुति— दिगम्बर)

Post a comment or leave a trackback: Trackback URL.

Comments

  • Kamta Prasad  On July 16, 2015 at 9:16 am

    कथ्य अच्छा है पर कविता के फार्म में नहीं है, मंगलेश डबराल जैसे किसी कवि की मदद लेने में क्या हर्ज है।

Leave a comment